वर्षों पहले, हिमालय की एक गुफा में एक बलिष्ठ शेर रहता था। एक दिन वह एक भैंसे का शिकार कर उसका भक्षण करके अपनी गुफा लौट रहा था। रास्ते में उसे एक दुबला-पतला सियार मिला, जिसने शेर को देखकर लेटकर दण्डवत प्रणाम किया।
शेर ने उससे पूछा, "ऐसा क्यों कर रहे हो?" सियार ने उत्तर दिया, "महाराज, मैं आपका सेवक बनना चाहता हूँ। कृपया मुझे अपनी शरण में ले लीजिए। मैं आपकी सेवा करूंगा और आपके द्वारा छोड़े गए शिकार से अपना जीवन यापन करूंगा।"
शेर ने उसकी बात मान ली और मित्रवत भाव से उसे अपनी शरण में रख लिया।
कुछ ही दिनों में, शेर द्वारा छोड़े गए शिकार को खा-खाकर वह सियार बहुत मोटा और ताकतवर दिखने लगा। अब उसे भ्रम होने लगा कि वह भी शेर जैसा बलवान है। प्रतिदिन शेर के पराक्रम को देखकर उसके मन में अहंकार भर गया।
एक दिन उसने शेर से कहा, "अरे सिंह! अब मैं भी तुम्हारी तरह शक्तिशाली हो गया हूँ। आज मैं एक हाथी का शिकार करूंगा और उसका मांस खाऊंगा। जो बचेगा, वह तुम्हारे लिए छोड़ दूंगा।"
शेर ने मुस्कराते हुए उसे समझाया, "मित्र, ऐसा मत करो। अपनी शक्ति का अति-आकलन मत करो, वरना नुकसान हो जाएगा।"
परंतु घमंड से अंधे सियार ने शेर की सलाह को नज़रअंदाज़ कर दिया। वह पहाड़ की ऊँची चोटी पर जा खड़ा हुआ और नीचे झुंड में घूमते हाथियों को देखने लगा। उसने खुद को सचमुच सिंह समझ लिया। फिर उसने सिंह की तरह तीन बार ज़ोर से हुंकार भरी और एक बड़े हाथी पर कूद पड़ा।
लेकिन वह हाथी के सिर पर नहीं, बल्कि पैरों के नीचे जा गिरा। हाथी ने चलते-चलते अपना अगला पैर उसके सिर पर रख दिया और आगे बढ़ गया। एक पल में सियार का सिर चकनाचूर हो गया और उसके प्राण निकल गए।
ऊपर से यह दृश्य देख रहा शेर बोला — "जो मूर्ख और घमंडी होते हैं, उनकी यही गति होती है।"

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